जातर कार्यक्रम का आयोजन

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कुशलगढ़ | वडलीपाड़ा (रामगढ़) में जातर कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस अवसर पर गांव के सभी बड़े ,बुजुर्ग,युवा उपस्थित रहे और देवता को खुश करने के लिए भजन /कीर्तन करते हुए पूजन कार्य किया। जातर प्रथा सनातन काल से चली आ रही आदिवासियों की परंपरा है। जातर प्रथा का आदिवासी परंपराओं में महत्वपूर्ण स्थान है, इस कार्यक्रम के आयोजन के पीछे बहुत सारे उद्देश्य और मान्यताएं जुड़ी हुई हैं।मान्यताएं-सनातन काल से इसका आयोजन, वर्षा ऋतु में दो बार किया जाता है। शुरुआत में आषाठ/श्रवण के महीने में जैसे ही बारिश आता है और चारों तरफ हरियाली छा जाती है उस समय आयोजन किया जाता है और दूसरी बार जब भुट्टे तैयार हो जाते हैं उस दौरान भुट्टे पूजन के हिसाब से किया जाता है। ऐसी मान्यताएं हैं की जातर का आयोजन करने से इंद्रदेव अति प्रसन्न होते हैं और अच्छी बारिश होती है। अच्छी बारिश होने से अच्छी उपज होती है। जब पहली बार इसका आयोजन होता है आषाढ़ महीना या श्रावण महीने की शुरुआत में उस समय इंद्रदेव से यही कामनाएं की जाती है कि इस साल अच्छी बारिश हो अच्छी फसल हो और पशुओं के लिए भरपूर घास तैयार हो साथ ही सभी जीवो के जीवन में खुशहाली आए इन्हीं मनोकामनाओं को लेकर के आयोजन होता है। जब भुट्टे तैयार हो जाते हैं उस समय आयोजन के पीछे भी यह मान्यताएं रही है की खेती बाड़ी में काम करने में सहयोग करने वाले बैलों को पशुओं को उनकी मेहनत का फल पहले खिलाया जाता है। और गांव की माताजी पर गांव के सभी लोग इकट्ठे होकर के हर घर से 10 से 15 भुट्टे लेकर के पूजन होता है, सामूहिक रूप से खीर बनाई जाती है और प्रकृति को पूजा जाता है, यह एक प्रकार से अच्छी बारिश होने से इंद्रदेव का धन्यवाद होता है। जातर मनाने का उद्देश्य आदिवासी अंचल में जातर प्रथा का आयोजन करने के पीछे कई उद्देश्य हैं। यह आदिवासियों की एक सनातन काल से चली आ रही परंपरा है जिसका निर्वहन पीढ़ी दर पीढ़ी करते आए हैं । इस अवसर पर फसल तैयार या भुट्टे तैयार होने पर सबसे पहले गांव के देवता का पूजन होता है। वहां पर भुट्टे, ककडी, खीरा,दुध चढ़ाया जाता है। इसके पश्चात भुट्टे बैलों को खिलाए जाते है, फिर बहन बेटियां के यहां भुट्टे ककड़ी, खिरा पहुंचाए जाते हैं इसके बाद घर का मालिक, बड़े, बुजुर्ग पहली फसल के भुट्टे का सेवन करते हैं।जातर प्रथा एक प्रकार से बहन- बेटियों, का मान सम्मान करना सिखाती है। इस अवसर पर उनको याद किया जाता है उनके घर जाकर के भुट्टे दिये जातें हैं।वास्तव में जातर प्रथा आदिवासियों की प्रकृति पूजा को दर्शाता है। गांव के देवता (पत्थर कि मूर्ति) का पूजन करना सनातन हिंदू धर्म का ही हिस्सा है। आदिवासी हिंदू हैं यह सबसे बड़ा सबूत है। आदिवासी सनातन काल से आदिकाल से प्रकृति को पूजता आया है ,पत्थर की मूर्तियों को पूजता आया है और अपने कल्चर को आज भी संभाल करके रखे हुए हैं। दूर दराज के जंगलों में खुदाई के समय मिली मूर्तियां यह सबसे बड़ा सबूत है ।यह किसी आयातित लोगों ने नहीं रखे हैं यह यही के लोगों या हजारों साल पहले यहां जो रहता था वह पूजते थे इस कल्चर को मानते थे उनके द्वारा तैयार किए गई पत्थर/मूर्तियों है। सिंधु घाटी सभ्यता/बाहर से आए हुए लोगों ने यहां के कल्चर को अडॉप्ट करके मॉडिफाई किया है। गांव में आज भी इन्हीं पत्थरों को पूजा जाता है।देवता माना जाता है। आयातित लोगों ने इन्हीं पत्थर/मूर्तियों को मॉडिफाई करके मंदिरों में बिठाया।आज भी हर गांव में पत्थरों या पत्थर की मूर्तियों को पूजा जाता है। यह साफ देखा जा सकता है। आज भी आदिकाल की परंपरा गांव में जीवित है। यह जानकारी लालसिंह मईडा रेसला ब्लॉक अध्यक्ष एवं समाज सेवी ने दी।


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