मानव मन को धर्म व अध्यात्म से ही नियंत्रित किया जा सकता है:- श्री हरि चैतन्य महाप्रभु
कामां 15 मई :- तीर्थराज विमल कुण्ड स्थित श्री हरि कृपा आश्रम के संस्थापक एंव श्री हरि कृपा पीठाधीश्वर स्वामी हरि चैतन्य पुरी जी महाराज ने आज यहाँ श्री हरि कृपा आश्रम में उपस्थित भक्त समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि मानव मन को धर्म व अध्यात्म से ही नियंत्रित किया जा सकता है । इसलिए धर्म विहीन मनुष्य को पशु तुल्य कहा गया है ।आज लोगों के धर्म से भी विमुख होने के कारण ही मानवता की कमी भी दिखाई देने लगी है । हमें समाज को बदलने के लिए लोगों की दृष्टि बदलने की आवश्यकता है। किसी को सुधारने से पहले स्वयं को सुधारना चाहिए । उन्होंने कहा कि बदले की भावना से वैर, क्षमा से प्रेम बढ़ता है। क्षमा कायरों का नहीं वीरों का आभूषण है । यदि सतंता के मार्ग पर बढ़ना चाहे तो अपने अन्दर क्षमा, करुणा,उदारता, कृपा आदि सद्गुणों को अपनाएं। जीवन मरण, हानि लाभ, सुख दुख के कर्ता धर्ता प्रभू ही हैं। प्रभु का नाम पाप धोने वाली गंगा, विष- वैर मिटाने वाला अमृत, दुर्जन को सज्जन बनाने वाली तंत्र , मोक्ष मिलने के मंत्र , भवसागर से पार उतारने वाली नौका व स्वर्ग जाने की सीढ़ी है । उन्होंने कहा कि जो आंखें विषय वासना, सांसारिक मोहमाया में फँसी है उन्हें परमात्मा नहीं दिखाई देते। तथा जब संसार नहीं दिखता तो प्रभू दिखते हैं। सन्तों, शास्त्रों व अवतारों को मात्र अपनी कमियां छुपाने की ढाल ही ना बनाएँ । उनसे प्रेरणाएं, शिक्षाएँ व उपदेश भी ग्रहण करके अपने जीवन में उतारकर जीवन को दैवत्व परिपूर्ण बनाए। विचार शील प्राणी कभी भी किसी भी हाल में धर्म व परमात्मा का साथ कदापि भी नहीं छोड़ता। यूँ भी धैर्य ,धर्म ,मित्र व नारी इन चारों की परीक्षा विपत्ति के समय होती है। कब कौन सी बुद्धि उजागर हो जाए कोई कुछ कह नहीं सकता, हाँ अच्छे संग से सुमति व बुरे संग से कुमति ही उत्पन्न होगी।
उन्होंने अपने ओजस्वी प्रवचनों में कहा कि प्यार बहुत ही छोटा सा शब्द है अगर सच्चा हो तो सारी दुनिया का मालिक भी इससे वश में हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। प्रेम ही ईश्वर है, ईश्वर ही प्रेम है। बशर्ते वह प्रेम विशुद्ध हो, निष्काम हो, निस्वार्थ हो, निष्कपट हों ऐसा विशुद्ध , निस्स्वार्थ, निष्कपट प्रेम परमात्मा का ही स्वरूप है जब यह स्वभाविक हमारे मन में उत्पन्न हो तो लगता है कि सामने वाला कौन है कही ये साक्षात परमात्मा तो नहीं है। लेकिन स्थिर नहीं रहती है बुद्धि, प्रेम, आस्था विश्वास। ये परमात्मा नहीं है तो परमात्मा का कोई निकट जन है ये सदियों से लगता आया है क्योंकि अंत में स्वाभाविक प्रेम परमात्मा या परमात्मा के निज जन के प्रति ही उत्पन्न हो सकता है। परंतु आज दुर्भाग्यवश इसी प्रेम का अभाव सर्वत्र दिखाई देता है आज मूर्खतावश लोग वासनामय संबंधों को प्रेम कह देते हैं जो कि प्रेम का भी अपमान है।
P. D. Sharma