दूसरों में दोष ढूंढने के कारण हमें अपने अंदर दोष होते हुए भी दिखाई नहीं देते – श्री हरि चैतन्य महाप्रभु

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दूसरों में दोष ढूंढने के कारण हमें अपने अंदर दोष होते हुए भी दिखाई नहीं देते – श्री हरि चैतन्य महाप्रभु

कामां 17 जून: -तीर्थराज विमल कुण्ड स्थित श्री हरि कृपा आश्रम के संस्थापक एंव श्री हरिकृपा पीठाधीश्वर स्वामी श्री हरि चैतन्य पुरी जी महाराज ने आज यहाँ श्री हरिकृपा आश्रम में विशाल समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि आपकी कोई भी क्रिया, चेष्टा, व्यवहार या कर्म ऐसा न हो जाए जिसे देखकर कोई उंगली उठाये। आपके जीवन में वांछित परिवर्तन भी आना चाहिए। अपनी गलतियों और बुराइयों को समझें व दूर करें। दूसरों पर मिथ्या दोषारोपण से कहीं बेहतर है कि स्वयं आत्म अन्वेषण करें। कई बार हम स्वयं गलतियां करते हैं, स्वयं अपने हाथो अपने लिए पतन का गड्ढा खोदते हैं व दोष दूसरों को देते हैं। दूसरों में दोष ढूंढने के कारण हमें अपने अंदर दोष होते हुए भी दिखाई नहीं देते। आंखें सबको देखती है पर अपने को नहीं देख पाती। निष्पक्ष ,शांत, एकाग्रचित्त होकर अपनी आत्मा की आवाज़ सुनें, तो पता चल जाएगा कि लोग हमें क्या समझते हैं, हमारा मन क्या समझता है, परन्तु वास्तव में हम हैं क्या ? किसी को दोष क्यों देते हो अपनी अनेक आंतरिक दुर्बलताएँ ही विनाश का कारण बनती है। उन्होंने कहा कि मनुष्य को अपने जीवन को श्रेष्ठ व मर्यादित बनाने के लिए जहाँ से अच्छाई मिले वहाँ से ग्रहण करके अपने जीवन को समाज के लिए कल्याणकारी श्रेष्ठ व मर्यादित बनाए। संसार में किसी को भी, कभी भी, किसी प्रकार से भी दुख, भय या कलेश नहीं पहुँचना चाहिए। तथा न ही पहुँचाने की प्रेरणा या इच्छा करनी चाहिए। सदैव सत्य स्वरूप परमात्मा की ही शरण लेनी चाहिए। हमें प्रभु का कृपा पात्र बनने की कोशिश करनी चाहिए दया पात्र नहीं। प्रेम पूर्वक की गई भक्ति से परमात्मा प्रसन्न होते हैं। और अपने भक्तों पर कृपा करते हैं।

उन्होंने कहा कि आत्मा व परमात्मा एक ही है मगर फिर भी अलग हैं। परमात्मा सृष्टि के कण कण में विद्यमान् है और आत्मा उसके एक अंश में, परमात्मा का आत्मा के बिना अस्तित्व है मगर आत्मा का परमात्मा के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। परमात्मा का इस सृष्टि में सबसे एक ही नाता है भक्ति का। उसके यहाँ ऊँच-नीच, जाति-पाति आदि का कोई भेद नहीं है। परमात्मा के लिए तो एक मात्र प्रेमपूर्ण भक्ति ही सर्वस्व है। भक्तिहीन मनुष्य ठीक उसी प्रकार है जैसे बिना जल के बादल, चाहे वह कितने ही उज्जवल क्यों न हो, मगर किसी के काम के नहीं होते। भक्तिहीन जीवन कितनी ही विशेषताओं से पूर्ण होने पर भी बेकार है।भक्तिमय मनुष्य परमात्मा को अत्यंत प्रिय होते हैं। और वही विशेष कृपा के अधिकारी होते हैं।

P. D. Sharma 


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