हलषष्ठी को बलराम जयंती व ललही छठ के नाम से भी जाना जाता है
प्रयागराज। बलराम जयंती के अवसर पर हलषष्ठी ललही छठ की पूजा बड़े उत्साह और हर्षोल्लास के साथ महिलाओं ने अपने बच्चों की लंबी उम्र के लिए व्रत रख कर किया। सनातन धर्म में इस व्रत का बड़ा ही महत्व है। इस दिन ही बलराम का जन्म हुआ था यह व्रत हर साल भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। गांव से लेकर नगरों तक शनिवार व रविवारको हल छठ की पूजा करती महिलाएं देखी गईं।जसरा, बारा , लोहगरा, शिवराजपुर, बेनीपुर, लखनपुर, गाढ़ा कटरा, शंकरगढ़ सदर बाजार, लाइन पार, रानीगंज आदि बाजारों में और गांव-गांव में बड़ी धूमधाम से ललही छठ का पर्व मनाया गया।धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस तिथि पर भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम जी का जन्म हुआ था। हल षष्ठी के त्योहार पर महिलाएं अपनी संतान की लंबी आयु और सुख-समृद्धि की कामना के लिए व्रत रख कर पूजन करती हैं। यह पर्व देश के उत्तरी ,पूर्वी भागों में विशेष रूप से मनाया जाता है। हल षष्ठी को बलरामजी जयंती और ललही छठ के नाम से भी जाना जाता है। बता दें कि संतान की लंबी आयु व बेहतर स्वास्थ्य के लिए महिलाओं द्वारा रखा जाने वाला यह व्रत इस बार दो दिन मनाया गया। हिंदू पंचांग के अनुसार शनिवार को दोपहर 12:30 बजे से षष्ठी तिथि का आगमन हुआ जो रविवार सुबह 10:11 बजे तक माना गया।प्रायः दोपहर में ही हलछठ की पूजा होती आई है ऐसे में कुछ महिलाओं ने शनिवार को ही व्रत रखते हुए हल छठ का पूजन किया ।वही हिंदू पंचांग के अनुसार उदया तिथि के महत्व की महत्वा को देखते हुए महिलाओं ने रविवार को व्रत रखा हाला कि रविवार को उपवास रखने वाली महिलाओं द्वारा हलषष्ठी का पूजन अर्चन सुबह 10 बजे तक पूरा कर लिया गया। बताते चलें कि व्रती महिलाओं द्वारा पूजन की विधिवत तैयारी करते हुए गेहूं, चना, ज्वार,बाजरा धान,चावल ,अरहर समेत कई प्रकार के अनाज भुनाकर मिट्टी के कुंडों में भरा गया। वहीं चीनी के भुकुवा में मेवे भरे गए कुछ मिट्टी के कुंडों में पका हुआ महुआ और भैंस के दूध से तैयार दही को भरा गया। तदुपरांत जमीन में गाड़े गए कुश, बेर की डाल व पलाश की डाल व जमीन पर हलछठ देवी का चित्र बनाकर विधि विधान से पूजन अर्चन कर हलषष्ठी की कथा सुनी। जैसा की मान्यता है की जुताई कर खेत में तैयार होने वाले अनाज व फल फूल को इस दिन ग्रहण नहीं किया जाता यहां तक की व्रती महिलाएं जोते हुए खेत में पांव तक नहीं रखतीं। रीति रिवाज के मुताबिक फसही का चावल जो बिना उपजाए स्वयं पैदा होता है उसी चावल को पका कर भैंस के दूध से तैयार दही के साथ खाकर व्रत का पारण किया गया।