हर गड्ढे को उसके बाप का नाम दें


कल घूमते हुए मैं एक गड्ढे में गिर गया। लोगों ने खींच कर निकाला, तो मैं वन मानुष लग रहा था। लोग मुझ पर हँस रहे थे, मै लोक निर्माण मंत्री पर हँस रहा था। टीवी चैनल वालों ने लाइव रिकॉर्ड करते हुए पूछा, आप गड्ढे में गिरे हैं, फिर भी हँस रहे हैं?

“पूरा देश गड्ढे में गिरा है, और हम सब हँस रहे हैं।”

रिपोर्टर दर्शकों से मुख़ातिब हो बोला – क्या आप को लगता है कि देश गड्ढे में गिर रहा है?

“हाँ-हाँ” समवेत स्वर गूँजा।

“देश को गड्ढे में कौन ढकेल रहा है?”

“नेता लोग और कौन!”

“क्या आपने किसी राजनेता को गड्ढा खोदते देखा है?”

“नहीं, मैंने उन्हें कब्र खोदते देखा है?”

“किस की कब्र?”

“देश की कब्र”

इस बार भीड़ ठट्ठा मार कर हँसी। गड्ढे में गिरने पर टीवी वाले इंटरव्यू लेते हैं यदि यह तथ्य मुझे पहले मालूम होता तो मैं बहुत पहले गड्ढे में गिर जाता। एक दर्शक तख़्ती बना लाया था, उसने उस पर गड्ढे का नाम लिख दिया – ‘पीडब्ल्यूडी मंत्री गड्ढा’। दर्शकों ने डंडे के आसपास पत्थर जमा दिए, कुछ मिट्टी भर दी ताकि यह तख्ती टिकी रहे। इसके फ़ोटो ले कर उन्होंने अपने सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिए। लोगों ने गड्ढे और तख़्ती के साथ धड़ाधड़ सेल्फियाँ लीं। अल्प समय में ट्वीटर और फेसबुक पर ‘पीडब्ल्यूडी मंत्री गड्ढा’ छा गया। भ्रमण को आये सैलानियों को टुरिस्ट बसें ‘पीडब्ल्यूडी मंत्री गड्ढा’ बताने लगीं। चार-छः महीनों से गड्ढे की जो फाइल मंत्रालय में दबी पड़ी थी, यकायक ऊपर आ गई। रातों-रात गड्ढा भर गया। अब टीवी चैनलों पर भरे हुए गड्ढे का ताज़ा डामर ब्रेकिंग न्यूज़ बन गया था।

देश में हर सड़क पर गड्ढे हैं। पीडब्ल्यूडी में जितने कर्मचारी हैं, उनसे कई गुना गड्ढे हैं। उनकी सात पीढ़ियों की कल्याण योजनाएँ इन्हीं गड्ढों से शुरू होती हैं। सड़क निर्माता ठेकेदारों को नागरिकों की बद्दुआएँ आम जैसी मीठी लगती हैं। जितनी बद्दुआएँ मिलती हैं, सब हजम कर जाते हैं और गारंटी के साथ सड़क बनाते हैं, ज़्यादा से ज़्यादा नौ महीने में गड्ढा होने की गारंटी।

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गड्ढे को नाम देना, अब आंदोलन का रूप ले सकता है। इसलिए मैं दिल्ली के गड्ढों के कुछ नाम सुझा रहा हूँ, सक्रिय सड़क पर बड़ा गड्ढा दिखे तो नाम हो ‘प्रधानमंत्री गड्ढा’। राजधानी की किसी उपेक्षित सड़क पर गड्ढा हो तो नाम ‘राष्ट्रपति गड्ढा’। जिस सड़क का कोई माई-बाप नहीं हो उस पर बड़ा गड्ढा हो जाए तो ‘सीएम गड्ढा’। वाशिंगटन डीसी के गड्ढे का नाम ‘ट्रम्प गड्ढा’ और न्यूयॉर्क के गड्ढे का नाम ‘क्लिंटन गड्ढा’ रखा तो ये गड्ढे दुनिया भर में चर्चित हो जाएँगे और रातोंरात ठीक भी हो जाएँगे। छोटा गड्ढा समय पर भर जाए तो बड़ा नहीं होता पर उस पर कमीशन क्या बनेगा!

स्मार्ट शहर योजना में आम शहर तो स्मार्ट नहीं हुए पर आम नागरिक ज़रूर स्मार्ट हो गए हैं।  वे समझना चाहते हैं कि विधानसभा मार्ग पर गड्ढा नहीं होता पर जनमार्ग एमजी रोड़ पर बड़े-बड़े गड्ढे क्यों हो जाते हैं। हमने पार्षद से कहा ‘महात्मा गांधी रोड़ पर बहुत ख़राब गड्ढा है, कुछ कीजिए।’ पार्षद ने एग्जिक्यूटिव इंजीनियर (ईई) को समस्या बताई तो उन्होंने पलट कर पूछा- नेताजी, चुनावों की घोषणा हो गई क्या? हमें तो पता ही नहीं चला!

गड्ढों की भराई और चुनाव में सीधा संबंध है। कोई कद्दावर राजनेता चुनाव प्रचार करते हुए गड्ढे में गिर जाए तो राजनीति का काला मुँह और काला हो जाए। गड्ढा निर्दलीय है, उसके लिए तो सब बराबर हैं, राजनेता पक्ष का हो या विपक्ष का, जो चाहे वो अंदर गिर जाए। बुरी बात यह है कि गड्ढे नागरिकों की सुविधा के लिए ठीक नहीं कराए जाते, सरकार का ढिंढोरा पीटने के लिए ठीक कराए जाते हैं। प्रशासन गड्ढों को बड़े बजट से ठीक कराता है जब कोई विदेशी हस्ती की कार उस सड़क से गुजरने वाली हो। प्रधानमंत्री गुजरने वाले हों तो गड्ढा गारे से भरवाना ठीक है, पर वहीं से इवांका ट्रम्प गुजरने वाली हो तो मुख्यमंत्री ख़ुद सीमेंट भरवाते हैं। शायद तब गड्ढे का सौंदर्यीकरण देश का सौंदर्यीकरण होता है।

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मैं जिस गड्ढे में गिर कर व्यंग्य बन गया था, वह नवनिर्मित सड़क थी। टीवी रिपोर्टों के अनुसार मुख्यमंत्री ने इसका पिछले महीने ही लोकार्पण किया था। मौसम सूखा रहने की पूरी संभावना थी कि मूसलाधार बारिश हो गई। गड्ढा कोई ख़बर नहीं था, गड्ढे में गिरते ही रिपोर्टरों के जरिए मुझे टीवी एंकर ने लाइव कर दिया। उनकी दहाड़ से न्यूज़-ब्रेक तो हुई, कई टीवी ब्रेक होते-होते बचे। भ्रष्टाचार विरोधी दस्ते ने ठेकेदार को धर-पकड़ा। ठेकेदार गिड़गिड़ाया, उसने बताया कि इंजीनियरों की जीभ बाज़ार माप से लम्बी थी, वे ज़रूरत से ज़्यादा चाटते गए और डामर कम होता गया। ईई की पड़ताल शुरू हुई तो वे लोक निर्माण मंत्री के चरणों में लेटे थे। इंजीनियर ने दस्ते को बताया – “मंत्री जी ने मुझ से कहा था पार्टी फंड में डेढ़ गुना इजाफ़ा हुआ है, ईई बनने के लिए बरामदे में लोग ठसाठस खड़े हैं। इशारा समझो। मैंने तो बस इशारा समझा था, उधर चाट कर आता था, इधर खाली कर देता था। सिविल इंजीनियरिंग कोर्स में यह सब नहीं पढ़ा था श्रीमान, गल्ती हो गई!” भ्रष्टाचार विरोधी दस्ता मंत्री जी के पीछे-पीछे मुख्यमंत्री निवास पहुँच गया। यहाँ गड्ढा व्यापम हो गया था। (आप व्यापम का अर्थ नहीं जानते हों तो ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी देखें या इंटरनेट पर सर्च करें, व्यापम इस दशक का सर्वव्यापी शब्द है)। गड्ढे के पितामह मिल गए थे। वे कानून के ऊपर बैठे थे।

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जो ढंग से सड़क न बना पाए वह सरकार देश क्या बना पाएगी? उसे नहीं मालूम कि सड़क पर उतरी जनता विपक्ष से ज़्यादा ताक़तवर होती है, गड्ढे उसे आगे बढ़ने से रोक नहीं सकते। पर हम कैसे नागरिक हैं। हम सड़क के गड्ढे ही सहन नहीं करते, अर्थव्यवस्था के गड्ढों को सहते हैं, रोज़मर्रा के भ्रष्टाचार के गड्ढों को सहते हैं, निठल्ले प्रशासन के गड्ढों को सहते हैं। जनता इन गड्ढों में रोज गिरती है। गिरती है तो गिरने दो, हम ऐसी सोच वाली सरकारों को सहते हैं। गड्ढे देख कर सरकार मौन रहे तो वह गूंगी है। गड्ढे में गिरती जनता की चीख-पुकार उसे नहीं सुनाई दे तो वह बहरी है। गहरे होते गड्ढों से घायल होता प्रजातंत्र सरकार को नज़र नहीं आए तो वह अंधी है। ये गड्ढे सरकार के प्रतिबिंब हैं।

हमें डर है हम इन तमाम गड्ढों का विरोध करेंगे तो असहिष्णु करार दिए जाएँगे। आइए हर गड्ढे को उसके सिरमौर का नाम दें, फिर उसे सोशल मीडिया पर रोशन करें। दुष्यंत कुमार ने कहा था – कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!

साभार 

किताबगंज प्रकाशन


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