बाबा श्री चंद जी का इतिहास
उदासीन आचार्य जगतगुरु श्री श्रीचंद्र जी महाराज लुप्तप्राय उदासीन संप्रदाय के पुन: प्रवर्तक आचार्य है। उदासीन गुरुपरंपरा में उनका 165 वाँ स्थान हैं। उनके गुरु पूज्य अविनाशमुनि उदासीन थे ।उनकी आविर्भावतिथि संवत 1551 भाद्रपद शुक्ला नवमी तथा अंतर्धानतिथि (अलूप) संवत् 1700 श्रावण शुक्ला पंचमी है। बाबा श्रीचंद के प्रमुख शिष्य श्री बालहास, अलमत्ता, पुष्पदेव, गोविन्ददेव, गुरुदत्त भगवद्दत्त, कर्ताराय, कमलासनादि मुनि थे। बाबा श्रीचंद के नाम से बटाला के समीप गांव नानक चक्क स्थित है। इस स्थान पर बाबा श्रीचंद जी ने काफी समय व्यतीत किया। यह गद्दी उदासीन अखाड़ा संगल वाला अमृतसर के अधीन है। बाबा श्री चंद जी द्वारा जिस स्थान पर भक्ती की गई थी, अब उस स्थान पर तपोस्थान बाबा श्री चंद जी का गुरूद्वारा टाहली साहिब स्थापित किया गया है। बताया जाता है कि इस स्थान पर बाबा श्री चंद जी महाराज जी ने 1635 में यहां आकर तपस्या की थी व यहां पर धूनी रमाई थी। तभी से ही श्रद्दालुओं की तरफ से यहां बाबा जी का धूना रमाया हुआ है। सदियों से ही उस स्थान पर टाहली का पेड़ सुशोभित है।
प्रारंभिक जीवन
बाबा श्रीचंद का जन्म 8 सितम्बर 1494 को पंजाब के कपूरथला जिला के सुल्तानपुर लोधी में हुवा था। उनका माता का नाम सुलखनी था। जन्म के समय उनके शरीर पर विभूति की एक पतली परत तथा दाहिने कान में मांस का कुंडल था। अतः लोग उन्हें भगवान शिव का अवतार मानने लगे। जिस अवस्था में अन्य बालक खेलकूद में व्यस्त रहते हैं, उस समय बाबा श्रीचंद गहन वन के एकांत में समाधि लगाकर बैठ जाते थे। वे इतने अच्छे छात्र थे कि वे प्रसिद्ध सोम नाथ त्रिपाठी को शास्त्र शास्त्रार्थ में पराजित करने में सफल रहे। बाबा श्रीचंद जी अपनी युवावस्था में ढाई वर्ष श्रीनगर में रहे। श्रीचंद जी ने बहुत छोटी उम्र में ही योग के तरीकों में महारथ हासिल कर लिए थे। कुछ बड़े होने पर वे देश भ्रमण को निकल पड़े। उन्होंने तिब्बत, कश्मीर, सिन्ध, काबुल, कंधार, बलूचिस्थान, अफगानिस्तान, गुजरात, पुरी, कटक, गया आदि स्थानों पर जाकर साधु-संतों के दर्शन किये। वे जहां जाते, वहां अपनी वाणी एवं चमत्कारों से दीन-दुखियों के कष्टों का निवारण करते थे। उन्होंने लुप्त हो रहे उदासीन सम्प्रदाय को अपने चमत्कारों से पुनः उजागर किया। उदासीन सम्प्रदाय परम्पराओं का मानना है की बाबा श्रीचंद ने देह का त्याग नहीं किया अपितु वे अल्प हो गये। वे चम्बा के जंगल में देह सहित अलूप हो गए। बाबा श्रीचंद के अदृश्य होने के बाद बाबा गुरदित्ता उदासीन सम्प्रदाय के प्रमुख उत्तराधिकारी बने।
भगवान श्री श्रीचन्द्र जी के चमत्कार
बाबा श्रीचंद जी विश्व भ्रमण करते-करते गांव कोटली कादराबाद पहुंचे। इनके साथ भक्त भाई कमलिया जी भी थे। बाबा श्री चंद जी ने भाई कमलिया जी को भिक्षा मांगने के लिए गांव में भेजा व खुद गांव के बाहर धुनी लगाकर बैठ गए। भाई कमलिया जी पूरे गांव से होकर लौट आए लेकिन किसी भी गांव वासी ने उन्हें भिक्षा नहीं दी, अपितु कहा कि पता नहीं कहां-कहां से साधु चले आते हैं। तभी बाबा श्रीचंद जी ने पूरे गांव को थेह [नाश] होने का श्राप देकर समीप के गांव चले गए। तब से लेकर लगभग सैंकड़ों वर्षो तक वहां पर कोई भी आदमी अपना घर नहीं बना सका। अगर कोई भी इमारत तैयार करता था तो वह रात्रि के समय ही ढह जाती। फिर वह पास के गांव गए जिसका नाम नानक चक्क पड़ा। वहां पर बाबा जी ने अपनी धुनी लगाई व भाई कमलिया जी को दोबारा भिक्षा मांगने हेतु गांव भेजा। गांव की एक महिला जो कि काफी वृद्घ अवस्था में थी उसके पास अपने खाने हेतु चार रोटियां पड़ी थी उसने वही रोटियां भाई कमलिया जी को दे दी।भाई कमलिया जी रोटियां लेकर बाबा श्रीचंद जी के पास आए व उन्हें पूरी बात बताई, माता भी उनके साथ बाबा जी के दर्शन हेतु वहां पर आ गई। बाबा श्रीचंद जी ने माता से उनका नाम पूछा तो अपना नाम हरोदेवी बताया। श्रीचंद जी ने उन्हें वर दिया माता हरी भरी रहो तो माता ने हाथ जोड़ कर बाबा जी से कहा कि महाराज मेरी वृद्घ अवस्था है व मेरा पति भी परलोक सिधार गया है आपने मुझे यह वर देकर मुझे असमंजस में डाल दिया है। माता हरो देवी ने श्रीचंद जी से कहा अपने जो गांव कोटली कादराबाद को थेह होने का वर दिया है आप उसे दोबारा आबाद होने का वर दें।
परिवार वंश के संरक्षण की कहानी
जबकि बाबाजी स्वयं एक तपस्वी जीवन जीते थे, उन्होंने न केवल पारिवारिक जीवन का समर्थन किया, उन्होंने वास्तव में बच्चे धर्म चंद का पालन-पोषण किया और उनकी शादी की व्यवस्था की।
कहानी इस प्रकार है
एक दिन भाई लक्ष्मी चंद जी शिकार पर गये हुए थे। बाबाजी ने उनसे कहा कि निर्दोष जानवरों को मारना पाप है और उन्हें भगवान के दरबार में इसका हिसाब देना होगा। यह सुनकर बाबा लक्ष्मी चंद अपने पूरे परिवार, यहाँ तक कि कुत्ते को भी लेकर, अपने घोड़े पर सवार हुए, और स्वर्ग की ओर चल दिए। बाबा श्री चंद जी को एहसास हुआ कि उनके भाई का बच्चा धर्म चंद गुरु नानक देव जी का अंतिम वंशज था। यदि बच्चा चला गया तो गुरुजी के वंश को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं होगा। तो बाबा श्री चंद जी ने अपना हाथ आकाश की ओर बढ़ाया, बच्चे को अपने भाई की गोद से उठाया, उसे वापस ले आए, और उसे अपने बेटे के रूप में पाला।
बाबा जी ने जहांगीर के मरे हुए पुत्र को जीवित किया
बाबा श्री चंद जी कांधरा बाग के जंगलों में धूना लगाकर बैठते थे। इसी से इस नगर का नाम नानक चक्क प्रसिद्ध हो गया। बाबा जी के दर्शनो को आस पास की संगत आती थी सब की मनोकामनाएं पूरी होती थी। बाबा की ख्याति दूर-दूर तक फैल रही थी। इधर लाहौर के तखत का बादशाह जहांगीर ने मुर्शद साईं मियां मीर जी से पूछा की पीर जी हिंदू राजो और नवाबों का मैं बादशाह हूं , आपके फकीरों का भी कोई बादशाह है या नहीं ? तो साइ मियां मीर जी ने उत्तर दिया कि जरूर है। बहुत महान ताकत वाला जपी, तपी, हठी, नेमी है तो करामांतो का भरपूर सागर है, जो कि आज कल काधरा बाग के जंगल में तप कर रहे हैं और संगतो को तार रहे है। श्री गुरु नानक साहिब जी के बड़े साहिबजादे हैं। उनका नाम श्री चंद्र जी है। आप जाकर अवश्य दर्शन करो। कुछ ही दिनों बाद जहांगीर ने एक राजपूत राजे को और अपने एक वजीर को अहलकारो साथ एक सुंदर हाथी श्रृंगार कर के बाबा श्रीचन्द्र को आदर सहित महल में लाने के लिए भेजा। वजीर जहांगीर की आज्ञा लेकर दो, तीन पड़ावो के साथ काधरा बाग पहुंचे जहां बाबा जी आसन पर बैठे थे। संगत बाबा जी से वचन विलास सुन सुन कर प्रसन्न हो रही थी। बाबा जी भी समझ गए थे कि यह बंदे बादशाह के होंगे। सभी ने चरणों पर माथा टेका आशिर्वाद लिया और वजीर ने हाथ जोड़कर विनती की कि हजूर आप जी को जहांगीर बादशाह ने दर्शनों के लिए लाहौर याद किया है , आप चलकर दीदार दें । यह हाथी आप जी की सवारी के लिए हाजिर है। हाथी तैयार खड़ा था तो बाबा श्रीचन्द्र ने अपनी क़बली हाथी के ऊपर रखने को कहा ।अभी कबली हाथी ऊपर रखी ही थी हाथी की चीखें निकल गई और टांगे जमीन में धंसती जाने लगी। जब हाथी के ऊपर से कबली उठाई तो फिर हाथी को सुरत आई फिर हाथी धरती से बाहर आ पाया। बाबा श्री चंद जी ने कहा कि जिसने हमारी कबली नहीं उठाई वह हमें किस तरह उठा कर पहुंचा सकता है ? इसको ले जाओ हम कल आप ही पहुंच जाएंगे। यह कोतक देख कर वजीर ओर अहलकार हैरान हो गए। दूसरे दिन बाबा श्री चंद जी ने भाई कमलिया जी को कहा कि हमें लाहौर पहुंचना है, बाबा जी कमलिया जी के कंधे पर बैठ गए वहां से आलोप हुए तो लाहौर पहुंच गए। उधर बादशाह जहांगीर को खबर मिल गई कि बाबाजी आ गए है तो बहुत सारे अहलकारों को साथ लेकर बाबा जी के स्वागत के लिए पंगलवांडी पहुंचे, बड़े स्वागत आदरमान के साथ राज दरबार में लाये। बड़े सुंदर सिंहासन पर बिठाया। महल में अभी बाबा श्रीचन्द्र से बातें हो ही रही थी कि बादशाह का पुत्र जो सात,आठ वर्ष का ही था अचानक खेलते खेलते वह महलों से नीचे गिर कर बेहोश हो गया। वैध बुलाये गए और बहुत उपाय किए गए पर अंत में बच्चे की मृत्यु हो गई। जब दरबार में बच्चे की खबर पहुंची रोना कलपना होने लगा। जहांगीर ने अपने मृत इकलौते पुत्र को उठाकर बाबा जी के चरणों में रख उसको जीवन दान देने की प्रार्थना की। बादशाह की विनती क़बूल कर बाबा श्री चंद जी ने अपने कमंडल में से बच्चे की लाश ऊपर जल का छींटा मारा और कहा उठ बच्चा इतना सोते नहीं बच्चा। बच्चा उसी समय ही उठ कर बैठ गया। बाबा जी के नाम की सब ओर जयजयकार होने लगी। उसी समय जब बादशाह ने इधर उधर नजर फेरी तो बाबाजी वहाँ से अलूप हो चुके थे। ये बात कहने से संकोच नहीं किया जा सकता कि बाबा श्रीचन्द्र अनेकानेक शक्तियों के भंडार थे। गूंगे को बोलने, बहरे को सुनने का वर देना, मुर्दों को जिंदा करना, अहंकारियों का अहंकार तोड़ने के विचित्र कोतक, बेऔलाद को औलाद की बक्शीश आस करके आए हर व्यक्ति की आस पूरी करनी आदि बेअंत करामाते बाबाजी में थी।