मजिस्ट्रेट और निचली अदालते बदल सकती है जेलों की तस्वीर : राजा भईया


मजिस्ट्रेट और निचली अदालते बदल सकती है जेलों की तस्वीर : राजा भईया

नई दिल्ली 12 सितम्बर। भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति की प्रतिष्ठा इतनी कीमती है की उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। एक फैसले मे सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि किसी बेकसूर व्यक्ति को एक दिन भी जेल मे रखना उसका पूरा जीवन बर्बाद कर सकता है।
दिल्ली हाई कोर्ट के एडवोकेट एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता राजेन्द्रसिंह तोमर राजा भईया ने इस बाबत कानूनी प्रक्रियाओ का जिक्र करते हुए बताया कि यदि देश की मजिस्ट्रेट और सैशन अदालते चाहें तो देश की जेलों मे बंद लाखों विचाराधीन बंदियों मे भारी कमी आ सकती है और जेलों की तस्वीर बदली जा सकती है।
उन्होंने बताया की देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई आदेशों मे कहा है की बेल यानी जमानत एक रूल है और जेल अपवाद है। शीर्ष अदालत ने जेलों मे लम्बे समय से बंद विचाराधीन बंदियों के संबंध मे प्रदेशो के उच्चतर, सैशन न्यायालयो व मजिस्ट्रेट अदालतों को कई बार दिशा निर्देश दिए हैं कि वो यांत्रिक तरिके से बंदियों के रिमांड देने और जमानते खारिज करते समय अपने विवेक और कानूनी प्रक्रिया का पूर्ण पालन करें और नियमित मामलो मे जमानते प्रदान करें।
राजा भईया ने बताया की देखने मे आता है कि जेल आरोपियों मे सुधार लाने की बजाय हार्डकौर अपराधी तैयार करने की प्रयोगशालाऐ बनती जा रही हैं। क्योंकि जेल आवास के दौरान पहली बार जेल गये बन्दी हार्डकोर अपराधियों की संगत मे आते हैं और अधिक समय जेल मे रहने के दौरान उनके मन में पुलिस व कानून के प्रति अविश्वास पंनपने लगता है। इसी बात का फायदा उठा कर जेलों मे बंद हार्डकोर अपराधी उन्हें अपने गैंग मंे शामिल कर लेते है।
एडवोकेट तोमर ने कहा कि नागरिक की व्यक्तिगत आजादी पर पुलिस के किसी भी अवैध हमले के सामने मजिस्ट्रेट अदालते पहली सुरक्षा रेखा होती है, बिना न्यायिक अनुमति के किसी को भी जेल नहीं भेजा जा सकता, यदि मजिस्ट्रेट अदालते मात्र सीआरपीसी की धारा 41-ए, 50(1), 167(2) ए, और 438 के प्रावधानों को सख्ती से लागू करें तो निश्चित ही देश की जेलों मे बंद लाखों विचाराधीन बंदियों के जेल मे रहने और जेल जाने मे कमी आ सकती है।
धारा 41(ए) के अनुसार कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी मामलो मे सात वर्षो तक की सजा से दंडित अपराधों के आरोप मे आरोपी की पुलिस द्वारा गिरफ्तारी नहीं की जा सकती और ना ही ऐसे आरोपी को जेल भेजा जा सकता है उसे पहले पुलिस बेल पर थाने से और बाद मे कोर्ट बेल पर अदालत से जमानती पेश करने पर रिहा किया जाना चाहिए। परन्तु ज्यादातर मामलो मे पुलिस ऐसा नहीं करती है।
धारा 50(1) के अनुसार गिरफ्तारी के समय गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के समस्त आधार उसको समझ आने वाली भाषा मे बताये जाने चाहिए ताकि वह अपने पर लगाये आरोपों की रक्षा कर सके ताकि फर्जी मुकदमो मे गिरफ्तारी की घटनाये रुक सके, परन्तु अधिकतम केसों मे आरोपी को गिरफ्तारी के आधार नहीं बताये जाते और ऐसा नहीं किया जाता।
धारा 167(2) ए, के अनुसार कोई भी मैजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति की न्यायिक हिरासत तभी बढ़ा सकता है जब वह ऐसा किये जाने के पर्याप्त आधार पुलिस केस डायरी मे देख संतुस्ट हो जाये, परन्तु हर पंद्रहवे दिन महज प्रथागत रूप से ही आरोपी का जेल रिमांड आगे बढ़ा दिया जाता है अधिकांश मामलो मे जाँच अधिकारी केस डायरी आरोपी की पेशी के दौरान कोर्ट मे पेश ही नहीं करते है।
इसी तराह कुछेक अपवाद मामलो को छोड़ कर यदि संबन्धित अदालते इसी तराह सीआरपीसी की धारा 438 जो किसी भी आरोपी को अग्रिम जमानत का अधिकार देती है, यदि ऐसे अग्रिम जमानतो के आवेदन पत्रों पर भी विचार करते हुए संबन्धित अदालते अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए और पूर्व मे पारित सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के आदेशों का पालन करें और आरोपी को बेल यानी जमानते प्रदान करें तो भी आरोपियों को नाहक जेल जाने से बचाया जा सकता है।
लम्बे समय से जेलों मे बंद बंदियों और उनका लम्बा ट्रायल चलने वाले केसो मे आरोपियों को नियमित जमानते प्रदान की जाये ऐसे अनेको आदेश सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्टों द्वारा दिए जा चुके हंै परन्तु फिर भी बंदियों को जमानत का लाभ नहीं दिया जाता।
एडवोकेट राजेन्द्रसिंह तोमर राजा भईया ने कहा कि वो किसी भी अदालत पर कोई टिका टिपणी नहीं कर रहे हैं पर यदि उपरोक्त सभी प्रक्रियाओ का पालन देश की सभी निचली अदालते सख्ती से करें और पुलिस द्वारा करवाएँ तो निश्चित रूप से जेलों की तस्वीरे बदली जा सकती है और विचाराधीन बंदियों के मामलो मे भारी कमी आ सकती है।

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सांकेतिक फोटो

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