सवाई माधोपुर। वर्तमान का समय डिजिटल एवं तकनीकी का युग़ है, इस तकनीकी के युग दुनिया स्मार्टफोन की रफ्तार से चल रही है। हर सुबह ‘‘गुड मॉर्निंग‘‘ के मेसेज से होती है और हर रात इंस्टाग्राम रील्स पर खत्म। एक समय था जब रिश्ते संवाद से बनते थे, मुलाकातों में पनपते थे और तकरारों के बाद भी दिल के तार जुड़े रहते थे। आज का समय अलग है। हम लोगो से जुड़ते जा रहे हैं लेकिन स्क्रीन पर, लेकिन दिलों से, जुबान से और असल ज़िंदगी से हम धीरे-धीरे दूर हो रहे हैं। अब रिश्ते ैममद और ज्लचपदह जैसे शब्दों में सीमित हो गए हैं। सोशल मीडिया पर पोस्ट, लाइक और कमेंट्स के बीच असली अपनापन कहीं खो गया है। सोशल मीडिया एक ऐसा रंगीन आईना बन चुका है, जिसमें हम सब अपनी सबसे सुंदर तस्वीरें दिखाते हैं, लेकिन दिल की दरारें छुपा लेते हैं। फेसबुक अन्य सोशल मीडिया पर हजारों, लाखों की संख्या में दोस्त हैं, लेकिन ज़रूरत के समय एक भी हाथ थामने वाला नहीं मिलता। आपकी पोस्टों पर हज़ारों लाइक्स तो मिलते हैं, लेकिन मन की बात सुनने वाला कोई नहीं होता।
रिश्तों का दिखावा, निभाने से ज़्यादा जरूरी हो गया है:- एक समय था जब रिश्ते चिट्ठियों, पत्रों में जिया करते थे, रिश्तों को इंतज़ार में परखा करते थे और मुलाकातों में महकते थे। आज के समय में रिश्ते इंस्टा, व्हाट्सएप स्टोरी में सीन होकर खत्म हो जाते हैं। किसी की तस्वीर पर दिल या लाईक वाला इमोजी भेजना अब भावनाओं की अभिव्यक्ति माना जाता है। लेकिन सवाल इस बात का है कि क्या ये वाकई जुड़ाव है।
जब असली जुड़ाव स्क्रीन के पीछे छुप जाए:- वर्तमान समय में देश का अधिकतर युवा पीढ़ी हर दिन औसतन 4 से 6 घंटे सोशल मीडिया पर बिताते हैं। यही समय वो अपने परिवार, दोस्तों या खुद से जुड़े पल जीने में नहीं दे पाते। आखिर में नतीजा मानसिक दूरी, भावनात्मक अकेलापन और रिश्तों में खोखलापन का निकलता है। व्यक्ति मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है। इसके लिए जरूरी है रिश्तों में गहराई, संवाद में संवेदना, साथ में अपनो के लिए समय और सबसे ज़रूरी रिश्तों में वास्तविक अपनापन।
रिश्तों की गहराई को वाई-फाई सिग्नल से जोड़ दिया है:-जैसे ही नेटवर्क जाता है, कनेक्शन टूट जाता है और यहीं हाल अब मानवीय रिश्तों का हो गया है। जो पास हैं, वो दूर हो जाते हैं क्योंकि हम दूर वालों को ‘स्टोरी में टैग’ करने में व्यस्त हैं। पहले लोग अपनों की आंखों में देख कर हाल-ए-दिल कहा करते थे, अब लोग उस ‘फील’ को इमोजी में समेटने की कोशिश करते हैं। रिश्तों की गर्माहट अब वाई-फाई की स्पीड पर निर्भर करती है।
सोशल मीडिया सुविधा या संवेदना का हत्यारा:- स्वाभाविक है, सोशल मीडिया ने हमें वैश्विक स्तर पर जोड़ने का काम किया है, लेकिन ये जोड़ कहीं न कहीं हमारे भीतर की संवेदना को काट रहा है। जब हम हर सुबह 50 स्टेटस देखकर दिन शुरू करते हैं, तो असली जीवन के 2 लोगों की मुस्कान हमें दिखती ही नहीं। माता-पिता अपने बच्चों को वीडियो कॉल पर गुड नाइट कहते हैं, लेकिन उनके पास बैठकर एक कहानी नहीं सुनाते। हम अपने बुजुर्गों की तस्वीरें व्हाट्सएप पर शेयर करते हैं, पर हफ्तों तक उन्हें गले नहीं लगाते।
समाधान है अपने रिश्तों पर ध्यान दो, समय दो और दिल से जुड़ो हर दिन एक वक्त बिना फोन के बिताएं अपनों के साथ सिर्फ बातचीत करें। वर्चुअल संवाद से पहले वास्तविक संपर्क को प्राथमिकता दें, मिलने की परंपरा को लौटाएं, सिर्फ ऑनलाइन बातों से रिश्ता नहीं बनता। ‘थ्ममसपदह ैंक’ पोस्ट करने से बेहतर है, किसी अपने से बात करें। भावनाओं को शब्दों से नहीं, समय से जताएं वहीं एक घंटा साथ बैठना हज़ार मैसेज से अधिक असरदार होता है।
सोशल मीडिया ने हमें एक नया मंच दिया है आज वर्तमान समय की इस डिजिटल दुनिया में तो बेहद सक्रिय हैं, लेकिन दिलों की दुनिया में खोखले हो चुके हैं। हमारे रिश्ते अब केवल इंस्टाग्राम के फिल्टर पर ही सुंदर लगते हैं, जबकि हकीकत में वे मरुस्थल बन चुके हैं जरूरत है हमें खुद में आत्ममंथन की क्या हम अपने रिश्तों को केवल पोस्ट और लाइक के सहारे जीवित रखना चाहते हैं या फिर फिर से जीना चाहते हैं वो पल जब बिना किसी कैमरे के भी मुस्कान सच्ची होती थी। प्यार जताने के लिए स्टेटस नहीं, साथ चाहिए, रिश्ता निभाने के लिए फॉलोअर्स नहीं, फुर्सत चाहिए।

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