Shiladevi Amer: मशहूर पिंकसिटी ऐतिहासिक इमारतों और सुन्दर पर्यटन स्थलों के लिए दुनियाभर के सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहता हैं। आमेर के किले में स्थापित माता शिला देवी का मंदिर अपनी बेजोड़ स्थापत्य कला के लिए जाना जाता हैं। महिषासुर मर्दन करती मातारानी अपने भक्तों को दर्शन देती है। आमेर महल के प्रांगण में स्थित शिला देवी जयपुरवासियों की आराध्य देवी बन गई है। हर साल नवरात्रि में यहां मेला लगता है और देवी के दर्शनों के लिए हजारों-लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। आमेर की शिला देवी मंदिर के बारे में जिनकी मान्यता देशभर में है।
आमेर किला और शिला माता मंदिर
पर्यटक यहां किले को निहारने के साथ मातारानी का आशीर्वाद जरूर लेते हैं। नवरात्र में दस दिनों तक आस्था का सैलाब उमडता है। आसपास के ग्रामीण बाहुल्य क्षेत्रों से पदयात्रा पहुंचती है। कोई हाथों में दिया लेकर तो कोई दंडवत करते हुए माता रानी की चौखट तक पहुंचता है। शिला देवी की यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी के रूप में बनी हुई है। सदैव वस्त्रों और लाल गुलाब के फूलों से ढंकी मूर्ति का केवल मुहं और हाथ ही दिखाई देते है। मूर्ति में देवी महिषासुर को एक पैर से दबाकर दाहिनें हाथ के त्रिशूल से मार रही है। इसलिए देवी की गर्दन दाहिनी ओर झुकी हुई है। मूर्ति चमत्कारी मानी जाती है।
इतिहासकारों का कहना है कि शिला माता की प्रतिमा एक शिला के रुप में मिली थी। इतिहास में शिला देवी प्रतिमा को लाने के संबंध में कई मत चलन में है। 1580 ईस्वी में इस शिला को आमेर के शासक राजा मानसिंह प्रथम बंगाल के जसोर राज्य पर जीत के बाद वहां से इसे लेकर आमेर लेकर आए थे। यहां के प्रमुख शिल्प कलाकारों से महिषासुर मर्दन करती माता के रुप में उत्कीर्ण करवाया। मंदिर के प्रवेश द्वार पर पुरातत्वीय ब्यौरा मिलता है जिसके अनुसार बताया गया है कि इस मूर्ति की महाराज मानसिंह 16 वीं शताब्दी के अंत में लाए थे। प्रतापादित्य के राज्य में केदार राजा से युद्ध करने पर जब वह पहली बार असफल रहे तो उन्होने काली की उपासना की। काली देवी ने प्रसन्न होकर स्वप्न में उन से अपने उद्धार का वचन लिया और उन्हे विजयी होने का वरदान दिया। उसी के फलस्वरूप समुद्र में शिला रूप में पडी हुई यह प्रतिमा महाराजा द्वारा आमेर लाई गई और शिला देवी के नाम से घोषित हुई।
दूसरा मत है कि राजा केदार ने हार मानकर मानसिंह महाराज को अपनी पुत्री ब्याह दी थी। साथ में यह मूर्ति भेंट की थी। तीसरा मत यह भी है कि राजा केदार को माता का यह वचन था कि जब तक वह राजी होकर माता को जाने के लिए नहीं कहेगा। तब तक देवी उसके राज्य में ही रहेगी। राजा मानसिंह की पूजा से पूजा से प्रसन्न होकर देवी राजा केदार की पुत्री का रूप धर कर पूजा कक्ष में उसके पास बैठ गई। पूजा में विध्न नहीं पड़े, इसलिए राजा ने उसे अपनी पुत्री समझ कर तीन बार कहा। जा बेटा यहां से चली जा मुझे पूजा करने दे। इस प्रकार माता ने राजा के मुंह से अपने पास से जाने की बात कहलवा दी।
राजा मानसिंह ने किया था स्थापित
कहा जाता है कि जब राजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने माता की प्रतिमा को समुद्र में फेंक दिया। बाद में राजा मानसिंह ने माता की प्रतिमा को शिला के रूप में समुन्द्र में से निकाल लिया। शिला के रूप में मिलने से देवी शिला माता के नाम से विख्यात हुई और आमेर महल में भव्य मंदिर बनाकर प्रतिस्थापित करवाया। शिलादेवी मन्दिर में दर्शन के बाद बीच में भैरव मन्दिर बना हुआ है। जहां माता के दर्शन के बाद भक्त भैरव दर्शन करते हैं। मान्यता है कि माता के दर्शन तभी सफल माने जाते हैं, जब वह भैरव दर्शन करके नीचे उतरता है। कहा जाता है कि वध करने पर भैरव ने अंतिम इच्छा में माता से वरदान मांगा था कि आपके दर्शनों के बाद मेरे दर्शन भी भक्त करें। माता ने उसे आशीर्वाद देकर उसकी इच्छा को पूर्ण किया था।
मंदिर के बारे में ये भी जानना जरूरी
किंवदंतियों के अनुसार मंदिर में 1977 तक पशु बलि दी जाती थी लेकिन अब सार्वजिनक तौर पर पशु बलि नहीं दी जाती है। शिलादेवी के मंदिर में जल-मदिरा के रूप में भक्तों को चरणामृत दिया जाता है। शिलादेवी की प्रतिमा अष्टभुजी काले पत्थर की है। भगवती महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति के ऊपरी हिस्से पर पंचदेवों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण है। इस देवी का मंदिर सफेद संगमरमर से निर्मित है जो स्थापत्य कला की उत्कृष्टकृति है। मानसिंह द्वितीय ने शिलादेवी के मंदिर में चांदी के किवाड़ भेंट किये। शिला देवी के बाई तरफ अष्टधातु की हिंगलाज माता की मूर्ति प्रतिष्ठित शिला के रूप में मिलने कारण शिला देवी के रूप में प्रसिद्ध, यह मूर्ति चमत्कारी मानी जाती है।

आमेर शिला माता में चढ़ाया जाता है गुजियां और नारियल का प्रसाद
यहां वर्ष में दो बार चैत्र और आश्विन के नवरात्र में मेला लगता है। आमेर की शिला माता माता मंदिर में नवरात्रि में रंगत कुछ अलग ही हो जाती है। धूमधाम से मनाया जाने वाले इस पर्व में नौ दिन तक देवी की आराधना की जाती है। वैसे तो 12 माह में चार बार नवरात्रि आती है। जिसमें दो आषाढ़ और माघ माह की नवरात्री गुप्त होती है। वहीं चैत्र और आश्विन माह की नवरात्रि ज्यादा लोकप्रिय है। पूरे देश में नवरात्रि की पूजा अलग-अलग मान्यताओं के अनुसार होती है। घरों से लेकर हर मंदिर में नवरात्रि पर घट स्थापना होती है। घट स्थापना के बाद ही मंदिर के पट आम दर्शनार्थियों के खुलते हैं। बेंगलुरू, पुणे और दिल्ली से मातारानी के दर्शन करने आए परिवार के सदस्यों से जब बातचीत की तो बहुत खुश नजर आए। उनका कहना था की अब तक मातारानी के बारे में सुना था पढा था इतिहास और चमत्कार के बारे में. लेकिन आज दर्शन करने के बाद लग रहा है वास्तव में जो पढा, सुना वो सच है। मंदिर में जाने के बाद लगता है दिनभर माता के चरणों में ही बैठे रहे।
नवरात्रों में उमड़ती है भीड़
यह देशभर में अति प्राचीन मंदिर हैं। जहां ईश्वर अपने श्रद्धालुओं को दर्शन देते हैं। इन मंदिरों में अगाध आस्था और श्रद्धा के साथ श्रद्धालु शीश नवाते हैं और अपनी मनोकामना के लिए याचना करते हैं। श्रद्धालुओं की अर्जी इन मंदिरों में सुनी जाती है और फिर श्रद्धालु इन्हें शक्ति के जागृत स्थल मानकर यहां पूजन के लिए उमड़ने लगते हैं। बहरहाल, समय के साथ-साथ आस्था का रैला भी बढता जा रहा है।
शिला रुप में मिली तो कहलाई शिला देवी
कहा जाता है कि शिला माता की प्रतिमा एक शिला के रुप में मिली थी। 1580 ईस्वी में इस शिला को आम्बेर के शासक राजा मानसिंह प्रथम बंगाल के जसोर राज्य पर जीत के बाद वहां से इसे लेकर आम्बेर लेकर आए थे। यहां के प्रमुख शिल्प कलाकारों से महिषासुर मर्दन करती माता के रुप में उत्कीर्ण करवाया। इस बारे में जयपुर में एक कहावत भी बहुत प्रचलन में है, सांगानेर को सांगो बाबो जैपुर को हनुमान, आमेर की शिला देवी लायो राजा मान। इतिहास में शिला देवी प्रतिमा को लाने के संबंध में कई मत चलन में है, लेकिन इतिहासकारों की नजर में तीन मत ज्यादा ही प्रचलित है। एक मत यह है कि लड़ाई में हारने पर जसोर राज्य के राजा केदार ने अपनी पुत्री का विवाह राजा मानसिंह से किया था और दहेज में माता की प्रतिमा दी थी। दूसरा मत यह है कि राजा मानसिंह ने बंगाल के अधिकांश प्रांतों पर विजय हासिल कर ली, लेकिन राजा केदार को हरा नहीं पाए। जब राजा ने कैसे जीत मिले, इस बारे में पता किया तो यह सामने आया कि राजा के महल में काली माता का मंदिर है और माता के आशीर्वाद से कोई भी शत्रु राजा को युद्ध में हरा नहीं सकता। इस पर राजा मानसिंह ने माता को प्रसन्न करने के लिए पूजा की। माता ने प्रसन्न होकर स्वप्न में दर्शन दिए, जिसमें अपने साथ ले चलने व अपनी राजधानी में मंदिर बनाने की बात कही। राजा ने वचन देकर राजा केदार के राज्य पर हमला करके उसे पराजित कर दिया। तीसरा मत यह भी है कि राजा केदार को माता का यह वचन था कि जब तक वह राजी होकर माता को जाने के लिए नहीं कहेगा, तब तक देवी उसके राज्य में ही रहेगी। राजा मानसिंह की पूजा से पूजा से प्रसन्न होकर देवी राजा केदार की पुत्री का रूप धर कर पूजा कक्ष में उसके पास बैठ गई। पूजा में विध्न नहीं पड़े, इसलिए राजा ने उसे अपनी पुत्री समझ कर तीन बार कहा, जा बेटा यहां से चली जा मुझे पूजा करने दे। इस प्रकार माता ने राजा के मुंह से अपने पास से जाने की बात कहलवा दी। कहा जाता है कि जब राजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने माता की प्रतिमा को समुद्र में फेंक दिया। बाद में राजा मानसिंह ने माता की प्रतिमा को शिला के रूप में समुन्द्र में से निकाल लिया। शिला के रूप में मिलने से देवी शिला माता के नाम से विख्यात हुई और आमेर महल में भव्य मंदिर बनाकर प्रतिस्थापित करवाया। शिलादेवी मन्दिर में दर्शन के बाद बीच में भैरव मन्दिर बना हुआ है। जहां माता के दर्शन के बाद भक्त भैरव दर्शन करते हैं। मान्यता है कि माता के दर्शन तभी सफल माने जाते हैं, जब वह भैरव दर्शन करके नीचे उतरता है। कहा जाता है कि वध करने पर भैरव ने अन्तिम इच्छा में माता से वरदान मांगा था कि आपके दर्शनों के बाद मेरे दर्शन भी भक्त करें। माता ने उसे आशीर्वाद देकर उसकी इच्छा को पूर्ण किया था।
रहस्यमयी व चमत्कारिक है
माता शिलादेवी को चमत्कारिक के साथ रहस्यमयी भी माना जाता है। लोगों और इतिहास में कई तरह की बातें है। इसमें से एक यह काफी प्रचलन में है कि 1727 ईस्वी में आम्बेर को छोड़कर कछवाहा राजवंश ने अपनी राजधानी जयपुर को बनाया तो माता ने रुष्ट होकर अपनी दृष्टि टेढ़ी कर ली। वहीं एक मत यह भी है कि राजा मानसिंह् से स्वप्न में माता ने मंदिर स्थापना के बाद रोज एक नर बलि का भी वचन लिया था। राजा मानसिंह ने इस वचन को निभाया की, लेकिन बाद के शासक इसे निभा नहीं पाए और नर के बजाय पशु बलि देने लगे। इससे भी नाराज होकर शिला देवी की दृष्टि टेढ़ी होने की कही जाती है। हालांकि इतिहासकारों का एक मत यह भी है कि शिलादेवी की प्रतिमा पहले पूर्वाभिमुख थी। महाराजा सवाई जयसिंह के जयपुर नगर की स्थापना किए जाने पर निर्माण में व्यवधान होने लगे। तब तांत्रिकों से पूछा गया तो बताया गया कि शिलामाता की जयपुर की तरफ तिरछी दृष्टि पड़ रही थी। तांत्रिकों व पण्डि़तों ने सवाई जयसिंह को राय दी कि शिलामाता को उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवाने से ही जयपुर शहर का निर्माण संभव हो सकेगा। उसे सवाई जयसिंह ने प्रतिमा को वर्तमान गर्भगृह में उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवाया। वहीं कुछ का यह भी मानना है कि प्रारंभ से ही मूर्ति की बनावट ऐसी है, जिसमें माता का मुंह कुछ टेढ़ा नजर आता है।
हिंगलाज संग शिलादेवी
मंदिर में विराजित शिला माता महिषासुर मर्दिनी के रुप में प्रतिष्ठित है। मूर्ति वस्त्रों और पुष्पों से आच्छादित रहती है। माता का मुख और हाथ ही दिखाई देते हैं। महिषासुरमर्दिनी के रुप में शिला देवी महिषासुर को एक पैर से दबाकर दाहिने हाथ के त्रिशूल मार रही है। इस मूर्ति के ऊपरी भाग में बाएं से दाएं तक अपने वाहनो पर आरुढ गणेश, ब्रह्मा, शिव, विष्णु व कार्तिकेय की मूर्तियां उत्कीर्ण है। शिलादेवी की दाहिनी भुजाओं में खडग, चक्र, त्रिशूल, तीर तथा बाई भुजाओं में ढाल, अभयमुद्रा, मुण्ड और धनुष उत्कीर्ण है। खास बात यह है कि यहां हिंगलाज माता की भी मूर्ति है। जो कम ही भक्तों को पता है। शिलादेवी के साथ मां हिंगलाज भी उतनी ही पूजित है, जितनी माता शिलादेवी। शिलादेवी के बाई ओर अष्टधातु की हिंगलाज माता की स्थानक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति को आम्बेर में कछवाहा राजाओं से पूर्व वहां शासन करने वाले मीणा राजाओं के अफगानिस्तान के ब्लूचिस्तान से लाए जाने की कही जाती है। दायीं ओर गणेश जी की स्थानक मुद्रा में मूर्ति प्रतिष्ठित है। स्फटिक का शिवलिंग शिलादेवी के मंदिर में रखा हुआ है। इसके पीछे यंत्र रखा हुआ है। मंदिर के सामने के कक्ष में नवरात्रों में नवरात्र स्थापन किया जाता है। सुबह छह बजे भोग लगने के बाद ही मंदिर के पट खुलते हैं। भक्त गुंजी व नारियल का प्रसाद चढ़ाते हैं। वर्ष दो बार चेत्र और आश्विन के नवरात्र में यह मेला भरता है। नवरात्र में विशेष श्रृंगार किया जाता है। पन्द्रहवीं शताब्दी से आज तक मंदिर में बंगाली ब्राह्मण परिवार सेवा-पूजा करता आ रहा है और इनके परिवार आमेर में ही निवास करते आ रहे हैं। एक पूरी कॉलोनी पुजारी परिवारों व उनके रिश्तेदारों की है।

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