विश्वभर में व्याप्त ‘साहब’ दुनिया का सबसे गौरव पूर्ण शब्द है। साहब की एक खोपड़ी में कई दिमाग़ ठसाठस भरे होते हैं। कहीं की नस कहीं असामान्य ढंग से फिट हो जाती है, इसलिए वे अलग तरीके से सोचते हैं। उन्हें बात-बात पर मीटिंग करने का शौक होता है। मीटिंग करने से उनका दिमाग़ मुखर हो जाता है। मीटिंग में उनके मुखारविंद से भाषण ऐसे झरते हैं, जैसे नदी से कोई झरना। वे लोगों को देखते ही पहचान जाते हैं कि वह मुफ़्तखोर है या दुधारू। मुफ़्तखोर उनके लिए जयकारा बुलवाते हैं, और दुधारू उन्हें माल दिलवाते हैं।
साहब अनुशासन के पर्याय हैं। भरी हंडी में एक चावल दबाने से सारे चावलों की औकात पता लग जाती है, वैसे ही साहब एक कर्मचारी का टेंटुआ दबा कर सारे महकमे को उसकी और अपनी औकात बता देते हैं। जितनी बड़ी टेबल हो, घुमावदार कुर्सी की जितनी मोटी गद्दी हो, जितनी प्रतीक्षा के बाद उनसे मुलाक़ात हो, वे उतने बड़े साहब होते हैं। जितने बड़े साहब होते हैं, उतना ही कबाड़ी उनका दिमाग़ होता है। वे काम कम करते हैं, बातें ज़्यादा करते हैं और दिखावा उससे भी ज़्यादा करते हैं। वे काम करवाने में उस्ताद हैं, कितना भी कठिन काम हो चुटकियों में करवा देते हैं और यदि उनका खब्ती दिमाग़ अड़ जाए तो वे किसी का भी बेड़ा गर्क करवा सकते हैं।
साहब पारस पत्थर जैसे गुणी हैं। उनके साथ रहते-रहते उनका ड्रायवर परमज्ञानी बन जाता है। वह साहब की नस-नस जानता है। एक दिन साहब को पेट में दर्द उठा, वे बड़े बैचैन हो रहे थे। ड्राइवर को बुलाया और उससे कहा चलो। ड्राइवर उन्हें अस्पताल नहीं ले गया। पास के काउंटी ऑफिस (टप्पा कार्यालय) में उन्हें दौरे पर ले गया। साहब की दिव्य दृष्टि जहाँ पड़ती, ग़लती निकल आती। साहब ने छोटे अफसर को बहुत झाड़ा। एक हफ़्ते से किसी को झाड़ा नहीं था तो अजीर्ण हो रहा था। नायब और उसके बाबुओं को बेवज़ह डाँट पिलाते-पिलाते उनकी बेचैनी दूर हो गई। ड्राइवर बताने लगा, पिछली बार साहब को भयंकर पेट दर्द हुआ था, एक बाबू को सस्पेंड किया तब कहीं अजीर्ण ठीक हुआ।
साहब पेट ठीक कर आए और अपने चैंबर में हँसते-हँसते घुस गए। उनका सहायक आया और बहुत सारी डाक रख गया, वे विचलित नहीं हुए। उन्होंने घर फ़ोन लगवाया। पत्नी से बात की, बच्चों से बात की। दामाद आ गए थे तो उनसे और बेटी से बात की। उन्होंने नौकर को भी नहीं छोड़ा, उससे घर-गृहस्थी की बात की। सबसे कहा वे बहुत बिज़ी हैं। वे ख़ुद को बिज़ी न बतायें तो लोग उन्हें महाफुरसतिया समझ लें। फ़ोन रख कर उन्होंने डाक को दो बराबर थप्पों में बाँटा, जैसे ताश की गड्डी के ढेर बना रहे हों। फिर उन्होंने डिप्टी क को बुलाया, उसे दूसरे डिप्टी ख की फाइलें चेक करने दीं और डाक का एक ढेर चपरासी के हाथ डिप्टी क के कमरे में भेज दिया। चपरासी की सेवा पा कर डिप्टी क धन्य हो गया, उसकी चाल में अकड़ आ गई। फिर उन्होंने दूसरे डिप्टी ख को बुलाया, पहले डिप्टी क पर बहुतेरे कटाक्ष मारे और उसकी फाइलों का ढेर इस डिप्टी ख को थमा दिया। डाक का दूसरा ढेर चपरासी डिप्टी ख के कमरे में पटक आया। यूँ सारी डाक का निबटारा हो गया और दोनों डिप्टियों की समीक्षा हो गई। ऐसे कुशल प्रशासन के लिए उन्हें राष्ट्रपति पदक मिला था। वे दोनों डिप्टियों की खामियाँ मुझे गिनाने लगे। साहब को अपनी भूमिका की चिंता नहीं थी, वे अपने डिप्टियों की भूमिका को ले कर चिंतित थे। देश-विदेश के सारे साहब उनके प्रशासन का सूत्र अपना रहे हैं और देखिए अपना देश तरक्की कर रहा है।
साहब का क़द मातहतों से बनता है। उन्हें रात-दिन फाइलों को भाड़ में झोंकना पड़ता है। डिप्टी और असिस्टेंट न हों तो साहब भड़भूंजे लगते हैं। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। दो डिप्टी हों तो वे गंगा नहा लेते हैं। अपने साहब को अच्छा साहब बनने के लिए कान्वेंट संस्कृति में पढ़ा-लिखा और देसी संस्कृति में पला-बढ़ा होना चाहिए। हमारे यहाँ शुद्ध देसी आदमी साहब नहीं बन सकता, वह घिसते-घिसते प्रमोशन पा कर डिप्टी बन सकता है। कान्वेंटी आदमी भले सीधे डिप्टी बन जाए, साहब बनने में उसकी एड़ियाँ घिस जाती हैं। साहब बनने के लिए आदमी को हायब्रिड होना चाहिए, कान्वेंटी और देसी संस्कृति का हायब्रिड। शोषित आये तो उन्हें पुकारने की करुणा उसमें हो, और शासक कहे तो उन्हीं शोषितों का इनकाउंटर करा सकने का उसमें जोश हो। अपना साहब वही हो सकता है जो ऐसा बहुरुपिया हो सकता है, जो मुँह में राम और बगल में छुरी एक साथ रख सकता है।
अपने साहब की सबसे बड़ी योग्यता है काम टालना और ऊपर से दबाव आये तो तदर्थ रूप से रातों-रात काम निबटा देना। एक दिन मैं नीतियाँ बनाने वाले ‘एक्ज़ीक्यूटिव’ के पास बैठा था। वे हर साल आने वाली बाढ़ पर चिंतन कर रहे थे। उनका अदना अफसर आया और बोला, ‘सर बाढ़ रोकने के लिए मेरे पास स्थायी योजना है।’ साहब बहुत नाराज़ हुए और बोले, ‘तुम स्थायी रूप से बाढ़ रोक दोगे तो हमारे पास इतने इंजीनियर हैं उनका क्या अचार डालोगे। हर साल मुख्यमंत्री जी ऊपर से पैकेट टपकाते हैं और नीचे आ कर करोड़ों का प्रधानमंत्री राहत कोष पाते हैं, वह कहाँ से लाओगे। तुमको तो तुम्हारा मासिक वेतन मिल जाएगा, हम जो सैकड़ों छुटभैय्यों को पालते-पोसते हैं, उनका फंड कहाँ से लाओगे? तुम स्थायी हल खोज कर प्रजातंत्र का गला घोंट दोगे। हमेशा ऐसा सोचो कि कुछ बड़ा और भयानक घटे, पीड़ितों को ज़्यादा से ज़्यादा मुआवज़ा मिले। राजनीतिज्ञों को काम दिलाने की, राजनीति को सफल बनाने की ज़िम्मेदारी हमारी है।’
सच है राजनीति और नौकरशाही में आपसी समझदारी हो तो प्रजा को टोपी पहनाना सरल हो जाता है। साहब के इतने दूरदर्शी दिमाग़ की प्रशंसा हमेशा होना चाहिए। धन्य है साहब का दिमाग़, साहब नहीं होते तो प्रजातंत्र में न कोई राजा होता और न कोई प्रजा होती, दुनिया अजायबघर बन गई होती।
साभार
किताबगंज प्रकाशन

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