संकल्प की शक्ति अपरिमित है-श्री हरि चैतन्य महाप्रभु


कामां 16 मार्च|तीर्थराज विमल कुण्ड स्थित श्री हरि कृपा आश्रम के संस्थापक एंव श्री हरि कृपा पीठाधीश्वर व विश्व विख्यात संत स्वामी श्री हरि चैतन्य पुरी जी महाराज ने आज यहां श्री हरि कृपा आश्रम में उपस्थित विशाल भक्त समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि संकल्प की शक्ति अपरिमित है। संकल्प कालजयी है संकल्प की गति अबाध हैं जहां संकल्प है, वहां कुछ भी असंभव नहीं है पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की अभेद शक्ति भी मनुष्य के संकल्प को रोक नहीं सकी और व्यक्ति चन्द्रमा तक पहुंच गया। सागर की अथाह गहराई हो या एवरेस्ट का उच्चतम शिखर, संकल्प के आगे छोटा पड़ गया। संकल्प मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का सामूहिक निश्चय है एक बार अगर ये शक्ति जग जाए तो सृष्टि की पूरी ताकत भी इसे परास्त नही कर सकती ।

उन्होंने कहा कि धार्मिक कथाएं, पौराणिक गाथाऐं, ऐतिहासिक घटनाएं सभी एक स्वर में संकल्प शक्ति रूपी इस महाशक्ति की क्षमता को प्रभावित करते हैं। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान का प्रारंभ संकल्प मंत्र से ही होता है। अर्थात मनोवांछित इच्छा प्राप्त करने के लिए शुभ कार्य का आरंभ एक शुभ संकल्प से ही होता है। संकल्प शक्ति का यदि संधि विच्छेद किया जाए तो स्वयं +कल्प होता है कल्प यानि कितने युग बितने के बाद कल्प आता है यह बता रहा है कि मनुष्य किसी कार्य को असंभव इसलिए कहता है क्योंकि उसे लगता है कि यह कार्य उसके जीवन में पूरा नहीं हो सकेगा। गहराई से विचार करें तो समय की सीमा उसकी सामर्थ्य और शक्ति को तोड़ देती है लेकिन परिभाषा के अनुसार देखें व चेतना में भरें तो यह हमारी सोई हुई शक्तियों को जगाकर किसी कार्य को भी असंभव न मानते हुये पूरा करने की प्रेरणा देगा। आवश्यक नहीं है कि कर्म करने वाले को फल उसे इस जीवन में ही मिल जाए, हो सकता है कि उस संकल्प को पूर्ण होने में अर्थात लक्ष्य प्राप्ति में कई पीढ़ियां भी गुजर सकती हैं।

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उन्होंने कहा कि हमारे शास्त्रों ने हमें मात्र संकल्प नहीं ‘तनमे मनः शिव संकल्पमस्तु’ के आधार पर शिव अर्थात कल्याणकारी, सुंदर व सत्य संकल्प करने की प्रेरणा दी।

उन्होंने कहा कि आज हमारी,हमारे परिवार, देश ,समाज की जो दुर्दशा हो रही है । विभिन्न प्रयास करने के बावजूद जिससे हम उबर नहीं पा रहे हैं प्रयास करने के साथ साथ प्रभु से उनकी कृपा याचना से परिपूर्ण भाव सहित प्रार्थनाएँ अवश्य करनी चाहिए ।परमात्मा हमारी वस्तुओं, पदार्थों, मान सम्मान इत्यादि का नहीं वह तो हमारी प्रेम व भावनाओं का भूखा है। प्रेम रहित दुर्योधन के अतिथ्य को त्याग कर विदुर की कुटिया में रुख़ा साग व केले के छिलके भी प्रेम सहित स्वीकार करता है ।भिलनी के खट्टे मीठे झूठे बेर में उसे जो स्वाद आता है ऐसा तो अयोध्या व जनकपुर के विभिन्न व्यंजनों में भी नहीं आता ।

महाराज श्री ने कहा कि मात्र मानव शरीर पाकर ही हम सच्चे अर्थों में मानव या इंसान कहलाने का अधिकारी नहीं बन जाते हैं ,स्वयं को सुसंस्कारित करके समाज के लिए उपयोगी बनाएँ । सदाचार पूर्ण जीवन बिताएँ राष्ट्रीयता, नैतिकता व चरित्र को भी जीवन में महत्व दें ।

महाराज श्री के दिव्य प्रवचनों से सारा वातावरण भक्तिमय हो उठा ।तथा सभी मंत्रमुग्ध व भाव विभोर हो गए सभी भक्तजन हरिबोल की धुन में झूम झूम कर नाचने लगे। श्री गुरु महाराज, कांमा के कन्हैया व लाठी वाले भैया की जय जयकार से सारा वातावरण गूँज उठा ।


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