भीलवाडा। (पंकज पोरवाल) संसार सुख और दुख, दोनों का मिलाजुला रूप है। कोई इसे अपने सोच से सुखदाई बनाता है तो कोई दुखदाई। देखा जाए तो दोनों स्थितियां सिक्के के दो पहलू की तरह हैं। सिक्के को किसी तरह रखा जाए, उसकी कीमत नहीं घटती। इसी तरह जीवन को भी लेना चाहिए। यह बात पुराना शहर स्थित गोपाल द्वारा मंदिर मे चल रहे चतुर्मास सत्संग के अंतर्गत शिव महापुराण में पूज्य स्वामी मणि महेश चैतन्य महाराज ने कही। महाराज ने कहा कि हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों में शिव को बहुत सरल देवता के रूप में दर्शाया गया है। लोकहित के लिए समुद्र मंथन के वक्त वह खुद आगे बढ़कर विष पीते हैं। जब व्यक्ति सहजता से विसंगतियों के जहर को आत्मसात करता है तो उससे भयाक्रांत नहीं होता और जब विपरीत हालात को सच में जहर मान लेता है तो वह परेशान हो जाता है। विपरीतता प्रायः असफलता, धोखा आदि से आती है। यदि कोई छल-छद्म करे, अप्रिय स्थिति उत्पन्न करे और उसे जहर की तरह पीने की स्थिति बन जाए तब उस जहर को भगवान शंकर की तरह कंठ में ही रोक लेना चाहिए। यदि जहर हृदय में उतरा तो मन क्षुब्ध होगा, बदला लेने का भाव जागृत होगा। इसी तरह उस जहर को मस्तिष्क की तरफ भी नहीं जाने देना चाहिए। इससे भी क्रोध, क्षोभ, अवसाद ही होगा। भगवान शंकर इन्हीं कारणों से उसे कंठ में ही धारण करते हैं। इतने बड़े त्याग के बावजूद भगवान शंकर कुछ भी नहीं है तो सिर्फ एक लोटा जल चढ़ाने से प्रसन्न हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि जीवन में जो भी प्राप्त हो रहा है वह आपके प्रयत्न का परिणाम है। इससे संतुष्ट होने की आदत डालनी चाहिए, न कि लालच करना चाहिए।