टिकिट की प्रसव पीड़ाकवि दिनेश बंटी
ये राजनीति का शौक भी बड़ा अजीब है।
जिसको चुनाव लड़ना है वो बेचारा पांच साल तक मेहनत करता है। गांव – गांव में मरण – मौत, शादी ब्याह, मुंडन संस्कार, आगजनी, दुर्घटना, दो गुटों की लड़ाइयों को सुलझाने जाना, विद्युत विभाग, जलदाय विभाग, पुलिस थाने आदि के मामलों में लोगों की सहायता। घर, परिवार, बीबी बच्चों को भूलकर केवल वोटरों की ही सुध लेने में खुद का बेसुध हो जाना । पत्नी का भी इन सभी झंझटों से ताना देकर यह कहना कि तुम इतना सब कुछ कर तो रहे हो पर पार्टी ने टिकिट नहीं दिया तो ? देखना मैं तुम्हें यह सब छुड़वा के रहूंगी। उसके बाद आती है वो इलेक्शन की डेट की घोषणा, बस नेताजी लग जाते हैं जयपुर के चक्कर लगाने में। आज उस नेता से मिले, कल उस मंत्री से मिले, किसी ने आश्वासन दिया तो किसी ने कह दिया ऐसे थोड़े ही टिकिट मिलता है! इस वाक्य के बहुत से मायने हैं। ठीक है देखते हैं । इस उम्मीद पर वो दिन का चैन और रात की बैचेनी के बीच गार्डन में टहलने सुबह चार बजे ही चला जाता है। गार्डन में अन्य टहलने वाले लोग उससे चुनावी मौसम में ऐसा गुल मिलते हैं कि जो लोग गार्डन में नेताजी से नज़रे चुराते या सिर्फ नमस्ते करते थे वो लोग क्या तैयारी चल रही है नेताजी पर आ जाते हैं। नेताजी भी जो वोटर उनका नहीं है उसके प्रति भी इतना आदर भाव दिखाते हैं मानो मधुमक्खी के सूखे छज्जे में भी शहद मिलने की उम्मीद बची हो। जयपुर प्रदेश स्तर के नेता, मंत्री सभी से साहब सुबह जय श्री कृष्णा के स्थान पर चरण स्पर्श कहकर, कृपा रखना कहना फिर बड़े नेता का उसे कहना प्रयास मेरा पूरा है बाकी आला कमान है और भगवान है। टिकिट दावेदार वाले नेताजी का पुनः उनको कहना मेरे तो आप ही भगवान हो साहब इतना कहने के बावजूद बड़े नेता का तुरंत कहना ठीक है रखूं। उस समय ऐसी फिलिंग आती है जैसे नारंगी गोली का अचानक स्वाद बदलकर ईनो जैसा हो गया हो। बेचारा दस नेताओं के संपर्क में है और 10 में से एक तो उसे कह रहे हैं तुम्हारा नाम पैनल में चल रहा है यह कोई कम बात नहीं है भावी एमएलए साहब इस बात पर तो शाम को अच्छी सी स्कॉच भेज दे। लो हो गई बेचारे के एक कॉल 5000 से 10000 रुपए के भाव की। नाम चल रहा है इस बात पर नेताजी का उत्साह दोगुना हो जाता है। जान बूझकर छोटे – मोटे नेताओं की नियमित बैठक वाली चौपाल पर जाकर ऐसे शो बाजी करना जैसे टिकिट जेब में ही रखा हो। कुछ लोग तो उन्हें पूरे पांच साल तक बिना चुने ही एमएलए साहब कहने लग जाते हैं। हालांकि यह कहना भी एक प्रकार से ताने का ही रूप है परंतु टिकिट के दावेदार को यह सब कहना मन ही मन अच्छा लगता है। बस प्रसव पीड़ा यानी लेबर पैन तब होना स्टार्ट होते हैं जब प्रत्याशियों की पहली सूची जारी होती है। दूसरी सूची में तो उसकी ठसक – मसक होना चालू। सभी शीटों के बावजूद फिर भी 10 विधानसभा के उम्मीदवारों की सूची शेष हो ओहो फिर तो नेताजी को कार्यकर्ता फोन कर कर के परेशान कर देते हैं। मीडिया के इस दौर में भी बेचारे नेताजी को जानते हुए भी अनभिज्ञ होकर फोन पे लोगों द्वारा वो ही जले पर नमक छिड़कने वाला डायलॉग साहब क्या खुश खबरी है। प्रसव के बाद भी ये ही सब पूछा जाता है। इसलिए मैने व्यंग्य का शीर्षक प्रसव पीड़ा लिखा है।जब तक टिकिट नहीं मिलता तब तक की पीड़ा प्रसव पीड़ा है। उसके बाद भी किसी दूसरे को नेताजी की आशाओं के विपरीत टिकिट दे दिया जाता है तब कहीं जाकर निर्दलीय नामक संतान का जन्म होता है जिसे प्यार से बागी भी कहते हैं।