सवाई माधोपुर 21 दिसम्बर। श्रीअग्रसेन सेवा समिति के तत्वाधान में अग्रभागवत ज्ञान अमृत कथा का शुभारंभ कथा वाचक व्यासपीठ पर विराजमान उज्जवल रमेश चंद महाराज द्वारा किया गया। सर्वप्रथम भगवान अग्रसेन एवं महालक्ष्मी के समक्ष दीप प्रज्वलन तथा माल्यार्पण किया गया। मुख्य यजमान गजानंद गोयल एडवोकेट ने सपत्नी व्यासपीठ का पूजन, माल्यार्पण किया। तत्पश्चात गणपति आराधना तथा भगवान अग्रसेन, महालक्ष्मी के आवाहन के साथ अग्रभागवत कथा प्रारंभ हुई।
कथा में आचार्यजी ने बताया कि महालक्ष्मी ने भगवान अग्रसेन को उनके जीवन काल में तीन बार दर्शन दिए थे। इंद्र के साथ भगवान अग्रसेन का घनघोर युद्ध हुआ था। इंद्र अग्रसेन को परास्त नहीं कर सका था। उस समय प्रसन्न होकर लक्ष्मीजी ने अग्रसेन को अमोघ शक्ति प्रदान की थी महालक्ष्मी ने अग्रवंश के उद्धार के लिए मोक्षदायिनी एकादशी के दिन भगवान अग्रसेन को दर्शन दिए थे। महाराजा बल्लभ सेन एवं भगवती देवी के पुत्र भगवान अग्रसेन का द्वापर के अंत में तथा कलयुग के प्रारंभ में अवतार हुआ था। यह एकमात्र ऐसे भगवान हैं जिनका अवतार दो युग के संधि काल में हुआ है। अनेकों राजा महाराजा संत महापुरुष हुए हैं लेकिन वंश परंपरा केवल भगवान अग्रसेन की ही प्रतिस्थापित हुई है जो आज तक अनवरत रूप से चल रही है। आचार्यजी ने परीक्षित के पुत्र जन्मेजय तथा ऋषि जेमिनी का भी दृष्टांत विस्तार पूर्वक समझाया। अग्र भागवत कथा का महाभारत के पश्चात ही उदय हो जाने का भी विस्तार से वर्णन बताया गया। राजा परीक्षित का तक्षक नाग के डस लेने से मृत्यु हुई थी इससे परीक्षित के पुत्र राजा जनमेजय क्रुद्ध होकर नागवंश को समूल नष्ट करने के लिए उद्यत हो गए थे और यज्ञ में नागों की आहुति दे देकर नागवंश को समाप्त करने लगे। आस्तिक नाग द्वारा जन्मेजय का क्रोध शांत किया गया तथा उन्हें समझाया गया कि आप भगवान अग्रसेन से संपर्क करें और उनसे ज्ञान प्राप्त करें उन्हें अग्रभागवत कथा उस समय सुनाई गई। भगवान अग्रसेन के पिता बल्लभ सेन महाभारत युद्ध में पांडवों की तरफ से धर्म युद्ध लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए थे। 16 वर्ष की आयु में ही भगवान अग्रसेन भी महाभारत युद्ध में सम्मिलित हुए। अपने पिता की मृत्यु के बाद वे विचलित नहीं हुए। युद्ध में अपना अजेय पराक्रम का परिचय देते हुए दोनों हाथों से युद्ध किया। भगवान अग्रसेन दोनों हाथों से अलग-अलग अस्त्र शस्त्र चलाने में पारंगत् थे। वे एक हाथ से तलवार और दूसरे हाथ से गदा चला लेते थे। गुरु के आश्रम में एक बार राजा रवींद्र नाम का राजा एक मुनि कन्या को जबरन उठाकर ले जा रहा था। कन्या के चिल्लाने पर अग्रसेन समेत अनेक शिष्यों ने रतींद्र को पकड़कर कन्या को उसके चंगुल से छुड़ा लिया। सभी ने रतींद्र को मारने की कोशिश की किंतु इन्होंने उसका काला मुंह करके अपने गुरु के समक्ष खड़ा कर दिया और उसको जीवन दान दिया। इस तरह भगवान अग्रसेन ने क्षमावान होने का परिचय दिया। एक बार सुन लेने के पश्चात उन्हें वह ज्ञान विद्या पूरी तरह से याद रह जाती थी। इसलिए उन्हें श्रुतिधर भी कहा जाता था। कथा के दौरान मंच पर अनेकानेक जीवंत प्रस्तुति भी दी गई। भगवान अग्रसेन के चाचा कुंदसेन से अग्रसेन का प्रचंड युद्ध, भगवान शिव का बल्लभ सेन को दर्शन, अग्रसेन का जन्म सहित अनेक जीवंत दृष्टांत मंच पर प्रस्तुत किए गए जिससे कथा में आध्यात्मिक रोमांच पैदा हो गया तथा श्रोता भाव विभोर हो गए।