अमेरिकी पत्रिका “फॉरेन पॉलिसी“ ने मध्य-पूर्व में भारत के उभार को रेखाकिंत किया

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अमेरिकी पत्रिका “फॉरेन पॉलिसी“ ने मध्य-पूर्व में भारत के उभार को रेखाकिंत किया

सवाई माधोपुर 1 जुलाई। वैश्विक मामलों पर केंद्रित अमेरिका की प्रतिष्ठित पत्रिका “फॉरेन पॉलिसी“ के एक लेख में कहा गया है कि मिडिल-ईस्ट रीजन में एक “प्रमुख देश“ के रूप में भारत का उभार हाल के वर्षो में इस क्षेत्र का सबसे दिलचस्प भू-राजनीतिक घटनाक्रम है।
लेख में कहा गया है कि भारत का उभार मध्य-पूर्व के राष्ट्रों के लिए बदलती अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था और नई बहुधु्रवीयता से लाभ उठाने की इच्छा – शायद उत्सुकता को दर्शाता है। इसके लिए लेख में इजराइल, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात सहित क्षेत्र के प्रमुख देशों के साथ नई दिल्ली के गहरे और बढ़ते संबंधों की बात कही गई है।
लेख के लेखक स्टीवन ए कुक ने तर्क दिया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका इस इस नई बनती व्यवस्था के बारे में ज्यादा कुछ करने की स्थिति में नहीं है, बल्कि वह चाहे तो विरोधाभासी तरीके से इससे लाभ उठा सकता है।
उन्होंने लिखा है “यदि संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्य-पूर्वी साझेदार वाशिंगटन के विकल्प की तलाश कर रहे हैं, तो नई दिल्ली एक बेहतर विकल्प है।“
उन्होंने कहा, “अमेरिका अब इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थिति में नहीं रह सकता है। लेकिन यदि भारत मध्य पूर्व में अपनी उपस्थिति बढ़ाता है तो न तो रूस और न ही चीन वहां अपनी भूमिका बढ़ा सकते हैं।“
लेखक ने लगभग एक दशक पहले की अपनी भारत यात्रा को याद करते हुए बताया कि उस समय भारत मध्य पूर्व में बड़ी भूमिका निभाने का इच्छुक नहीं था, लेकिन उनकी यात्रा के बाद से 10 वर्षों में चीजें बदल गई हैं।
कुक ने लिखा है “अमेरिकी अधिकारी और विश्लेषक बीजिंग के हर कूटनीतिक कदम से प्रभावित रहते हैं और मध्य पूर्व में चीनी निवेश को संदेह की नजर से देखते हैं, लेकिन वाशिंगटन इस क्षेत्र में हालिया वर्षों के सबसे दिलचस्प भूराजनीतिक घटनाक्रमों में से एक को नजरअंदाज कर रहा है, और यह है मध्य-पूर्व में भारत का एक प्रमुख देश के रूप में उभरना।
लेख में कहा गया है कि जब खाड़ी की बात आती है, तो हम पाते हैं कि संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब आक्रामक ढंग से भारत के साथ संबंधों का विस्तार करना चाह रहे हैं।
यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है क्योंकि दोनों देशों, विशेष रूप से सऊदी अरब, का लंबे समय से पाकिस्तान के साथ गठबंधन है। लेख कहता है कि भारत की ओर झुकाव कुछ हद तक इस्लामी चरमपंथ को रोकने में साझा हित से जुड़ा हुआ है लेकिन इसका बड़ा कारण आर्थिक है।
इस दृष्टिकोण को पुष्ट करने के लिए लेख में भारत और दोनों देशों के बीच बढ़ते आर्थिक संबंधों का उल्लेख किया गया है।
इजराइल के साथ भारत के मजबूत संबंधों पर लेख में कहा गया है कि शायद इस क्षेत्र में इजरायल और नई दिल्ली के सम्बन्ध सबसे अच्छे हैं।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी 2017 में इजराइल का दौरा करने वाले पहले भारतीय प्रमुख थे और इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा एक साल बाद भारत आने से दोनों देशों के बीच संबंध विभिन्न क्षेत्रों, विशेष रूप से उच्च तकनीक और रक्षा क्षेत्र में तेजी से विकसित हुए हैं।
कुक कहते हैं, इजरायल के छोटे बाजार और विवादास्पद राजनीति (भारत में कई लोगों के लिए) को देखते हुए भारत का व्यापारिक समुदाय पहले इजराइल में निवेश करने से कतराता था लेकिन अब इस स्थिति में बदलाव हो सकता है।
लेख में कहा गया है कि 2022 में, अडानी समूह और एक इजरायली कम्पनी ने हाइफा पोर्ट के लिए 1.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का टेंडर हासिल किया और अब भारत-इजरायल मुक्त व्यापार समझौते के लिए भी बातचीत चल रही है।
लेखक कहते हैं “बेशक, भारत-इजरायल संबंध जटिल हैं। भारत फिलिस्तीनियों के समर्थन में दृढ़ता के साथ खड़ा है, इसके ईरान के साथ भी मैत्रीपूर्ण संबंध हैं, जहाँ से नई दिल्ली ने बड़ी मात्रा में तेल खरीदा है और भारतीय कुलीन समुदाय इजराइल को स्वयं के औपनिवेशिक अनुभव के नजरिए से देखता है।“
मोदी की हाल की दो दिवसीय मिस्र यात्रा का जिक्र करते हुए लेख में कहा गया है कि यह मिस्र और भारत के बीच जारी मैत्री सम्बन्धों का ही एक हिस्सा था। मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सिसी भारत के 74वें गणतंत्र दिवस के सम्मानित अतिथि थे (सत्ता सम्भालने के बाद नई दिल्ली की उनकी यह तीसरी यात्रा थी) और इसके छह माह बाद ही मोदी मिस्र गए हैं।
लेख में कहा गया है कि चीनियों की तरह भारतीय भी मिस्र को अफ्रीका और यूरोप में अपना माल भेजने के लिए एक प्रवेश द्वार मानते हैं।
लेखक ने लिखा है कि अमेरिकी नीति निर्माताओं और विश्लेषकों के लिए इस क्षेत्र में भारत की बढ़ती भूमिका को चीन के साथ चल रही शक्ति प्रतिस्पर्धा के नजरिए से देखना दिलचस्प रहेगा।
लेख में कहा गया है बाइडन प्रशासन इस क्षेत्र पर जोर देने की नीति से हटकर इसे चीन को नियंत्रित करने के अवसर के क्षेत्र के रूप में मानने लगा है, इसलिए यहां बीजिंग के मुकाबले एक अतिरिक्त ताकत का खड़ा होना मददगार साबित होगा।
लेख कहता है कि जून के अंत में मोदी की वाशिंगटन यात्रा भी एक मैत्री उत्सव थी, जिसमें राजकीय रात्रिभोज और कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करना भी शामिल था।“
कुक ने तर्क दिया कि अमेरिका-भारत संबंधों के सकारात्मक माहौल के बावजूद, यह असंभव लगता है कि नई दिल्ली वैसा रणनीतिक भागीदार बनना चाहेगा, जैसा वाशिंगटन चाहता है।
लेख में कहा गया है कि जब मध्य पूर्व की बात आती है, तो भारत ईरान के मामले में संयुक्त राज्य अमेरिका और इजराइल से अलग हो जाता है।
भारत के आर्थिक और सुरक्षा संबंधों का विस्तार मध्य पूर्व के लिए क्या मायने रखता है, इस बारे में वाशिंगटन को अपनी अपेक्षाओं को थोड़ा संयमित रखना चाहिए।
लेख में कहा गया है, “इसकी संभावना नहीं है कि भारत अमेरिका के साथ खड़ा होगा, लेकिन यह भी संभावना नहीं है कि नई दिल्ली वाशिंगटन को कमजोर कर देगी जैसा कि बीजिंग और मॉस्को दोनों ने किया है।“
लेख में कहा गया है कि इस क्षेत्र में नई दिल्ली की बढ़ती ताकत को गंभीरता से लेने का समय आ गया है।


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